Thursday, September 14, 2017

बीकानेर शहर : चुनावी राजनीति की पड़ताल-दो

बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र के भाजपाई दावेदारों की फिलहाल की बात पिछली किश्त में पूरी हो ली। हां, कांग्रेसी उम्मीदवार की बात करें तो 1980 से इस सीट के लिए चुनौतीविहीन दावेदार डॉ. बीडी कल्ला आज भी उसी हैसियत में हैं। प्रदेश में शीर्ष पदों पर रहे और जयपुर प्रवासी हो चुके डॉ. कल्ला अब तक ऐसी हैसियत तो हासिल कर ही चुके हैं कि उनके टिकट मांगने पर हाइकमान भी किन्तु-परन्तु शायद ही करे। यह अलग बात है कि जयपुर प्रवासी हो जाने और ऊपरी पकड़ बनाये रखने की फिराक में जमीन से कटे कल्ला हार की तिकड़ी लगा चुके हैं। बावजूद इस सबके वे चाहेंगे तो बीकानेर पश्चिम से कांग्रेस की उम्मीदवारी ले पड़ेंगे। लेकिन शहर राजनीति की फिजा अभी आश्वस्त नहीं करती कि वे 2018 का विधानसभा चुनाव जीत जाएंगे। हो सकता है, अपनी से दूसरी-तीसरी पीढ़ी के किसी प्रौढ़ होते नौजवान से पटकनी खाकर वे चुनावी राजनीति से हमेशा-हमेशा के लिए बाहर हो लें।
कहने को इस सीट से मुसलिम या माली समुदाय से किसी नेता की दावेदारी का हक बनता है, लेकिन इन दोनों समुदायों से कोई नेता ऐसा साहस कर पाएगा, लगता नहीं। साम्प्रदायिक धु्रवीकरण के बढ़ते माहौल में मुसलिम समुदाय के किसी नेता के लिए दावेदारी के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं, गैर भाजपाई कोई भी दल यदि मुसलिम समुदाय से उम्मीदवार बनायेगा तो भाजपा के लिए जीत और आसान हो लेगी। इस तरह की चुनावी फिजाएं अन्तत: लोकतंत्र के लिए घातक ही सिद्ध होनी हैं, लेकिन चिन्ता से इंगित कराने के अलावा कुछ कर पाने का रास्ता फिलहाल नहीं दीखता। भाजपा पर सवर्णों की पार्टी की छाप पुख्ता होने के बाद ओसवाल समाज का कोई नेता अप्रभावी वोट बल के बावजूद दावेदारी भले ही जताए लेकिन सुराना के समय हुए जातीय धु्रवीकरण का सबक ध्यान में रखते हुए परिसीमन के बाद वोट बल के बदले हुए जातीय सन्तुलन के बाद भी कोई पार्टी जोखिम शायद ही ले।
बीकानेर पश्चिम से कांग्रेस से एक नाम और जो बार-बार लिया जाता है, वह राजकुमार किराड़ू का है। किराड़ू पार्टी संगठन में राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं और इसी बहाने अपने चेहरे और नाम की पहुंच ऊपर तक बना चुके हैं। लेकिन अपने कमजोर व्यक्तित्व के चलते उन्होंने वैसा मुकाम हासिल नहीं किया कि डॉ. कल्ला की दावेदारी के सामने चुनौती बन सकें। बावजूद इसके वे उम्मीदवारी ले आते हैं तो इसे चमत्कार ही कहा जाएगा। हां, कल्ला हार के डर से भाजपा से उम्मीदवारी ले आएं तो कांग्रेस से किराड़ू की उम्मीदवारी इस बीकानेर पश्चिमी सीट से मान सकते हैं।
किसी अन्य पार्टी का या कोई निर्दलीय उम्मीदवार आकर स्थापित दलों के उम्मीदवारों के बराबरी का खम ठोंक दे, ऐसा कोई सक्रिय राजनीतिक व्यक्तित्व इस क्षेत्र में दीख नहीं रहा। स्थापित पार्टियों के उम्मीदवारों में भी कोई अन्य चुनौती लायक तभी बन सकता है जिसकी जनता में सुदीर्घ सक्रियता हो अन्यथा ऐसे उम्मीदवार अपनी कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाते। निर्दलीय या ऐसे उम्मीदवारों का होना बहुदलीय लोकतंत्र की पहचान है, जिसकी खिल्ली उड़ाई नहीं जानी चाहिए। ऐसे विकल्प जैसे-कैसे भी बचें, लोकतांत्रिक मूल्यों को अपनी-अपनी क्षमता और पात्रता के अनुसार मजबूती ही देते हैं।
अब बात कर लेते हैं बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र की, जहां बात की गुंजाइश हालांकि उतनी लगती नहीं जितनी बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र में भाजपा विधायक गोपाल जोशी की बढ़ती उम्र ने इस बार दी है। बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र की तरह ही आगामी चुनावों में यहां भी भाजपा उम्मीदवार के लिए दूसरी अनुकूलता प्रधानमंत्री मोदी के भ्रमित करने के अभियान की सफलता को मान सकते हैं, ऐसी स्थिति अभी तक कायम है। बीकानेर पूर्व विधानसभा क्षेत्र से भाजपा से लगातार दूसरी बार जीत चुकीं सिद्धिकुमारी विधायक हैं। कहने को अगले चुनावों में भी उनकी भाजपा उम्मीदवारी चुनौतीविहीन है, बावजूद इसके कि वे अपनी इस नुमाइंदगी से जुड़ी लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों को या तो समझती नहीं या फिर उन्हें ताक पर धरे रखती हैं।
सिद्धिकुमारी जिस घराने से आती हैं उसके प्रति लोगों की मानसिकता में आज भी कोई खास बदलाव नहीं देखा जाता है। इस का दोषी लोकतंत्र में भरोसा रखने वालों की निष्क्रियता को मान सकते हैं। आजादी के 70 वर्षों बाद भी मतदाता को मन से लोकतांत्रिक बनाने में सफल नहीं हो पाएं हैं।
सिद्धिकुमारी चाहेंगी तो पार्टी उन्हें ही उम्मीदवार बनाएगी और फिलहाल परिस्थितियां उनकी जीत निश्चित दिखाती है बावजूद उनके नाकारापन के। कोई ऐसी परिस्थिति बने और सिद्धिकुमारी स्वयं ही उम्मीदवारी से इनकार कर दें तो फिर भाजपा के कुछ नेता अपनी इच्छा जगा सकते हैं जिनमें महावीर रांका भी एक हो सकते हंै। मगर सिद्धिकुमारी के प्रति इनकी निष्ठा इतनी है कि इन्हें जब पक्का भरोसा हो जायेगा कि सिद्धिकुमारी किसी भी कीमत पर उम्मीदवार नहीं होंगी, तभी रांका मुसकेंगे अन्यथा नहीं। ऐसी ही परिस्थितियों में इसी समाज के मोहन सुराणा का नाम भी लिया जा सकता है लेकिन इन दोनों की दौड़ में कई कारणों से महावीर रांका इक्कीस पड़ेंगे। लेकिन ऐसा होगा तभी जब सिद्धिकुमारी मैदान से पूरी तरह बाहर हो जाएं।
सिद्धिकुमारी के मैदान में रहते पार्टी के अन्तर्गत ही जो जमीनी राजपूत नेता चुनौती खड़ी करने का साहस कर सकते हैं तो वह सुरेन्द्रसिंह शेखावत हैं। पिछले एक अरसे से यहां की राजनीति में ना केवल सक्रिय हैं बल्कि देश, समाज और राजनीति की अच्छी खासी समझ भी रखते हैं। शेखावत के लिए यह कहा जाता है कि इस क्षेत्र में अपने हमउम्र नेताओं में वे अच्छी राजनीतिक समझ रखते हैं, लेकिन लोक में ऐसों के लिए यह भी कहा जाता है कि कोरी समझ से बटता क्या है? कहने को शेखावत ने अपनी पैठ प्रदेश से लेकर दिल्ली तक ठीक-ठाक बना ली है, बावजूद इसके पार्टी सिद्धिकुमारी से किनारा करने की जरूरत शायद ही समझे। हालांकि शेखावत के लिए दूसरा विकल्प लूनकरणसर विधानसभा क्षेत्र भी है लेकिन फिलहाल भाजपा और कांग्रेस दोनों स्थापित पार्टियों ने इस क्षेत्र को जाट खाते में डाल रखा है। सन्तुलन बैठाने के लिए भाजपा या कांग्रेस किसी ब्राह्मण या राजपूत नाम पर विचार करे तो महीपाल सारस्वत और सुरेन्द्रसिंह शेखावत की उम्मीदवारी पर वहां भी विचार हो सकता है।
बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस उम्मीदवार की बात करें तो फिलहाल उसने इस क्षेत्र को माली समुदाय के खाते में डाल रखा है। इनमें लगातार आत्मविश्वास खोते गोपाल गहलोत का नाम अव्वल इसलिए है कि उन्होंने पिछला चुनाव उस बुरी तरह नहीं हारा जिस तरह डॉ. तनवीर मालावत ने 2008 में हारा था। 2013 के चुनाव में गोपाल गहलोत के लिए एक प्रतिकूलता मोदी फैक्टर भी रही। लेकिन गोपाल गहलोत को 2018 का चुनाव बीकानेर पूर्व विधानसभा सीट से कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर जीतना है, इस तरह की सक्रियता दिखाते अभी तक वे लग नहीं रहे हैं। यही वजह है कि सार्वजनिक आयोजनों और आन्दोलनों में वे अपनी आत्मविश्वास भरी भाव-भंगिमाओं को सहेज कर नहीं रख पाते हैं। माली जाति पर ही दावं कांग्रेस को लगाना है तो दूसरे दावेदार शहर कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल गहलोत भी हो सकते हैं। अप्रभावी ही सही, जैसी-तैसी कांग्रेस की जीवन्तता वे शहर में बनाए हुए हैं, केवल इस बिना पर पार्टी उम्मीदवारी तय करेगी तो यशपाल का नम्बर भी आ सकता है। यदि ऐसा होता है तो यशपाल गहलोत को पार्टी आयोजनों में बहुधा अपने साथ नजर आने वाले गोपाल गहलोत से ही मोर्चा लेना होगा।
अन्य समुदायों में पूर्व की इस सीट पर कांग्रेस से मुसलिम, ब्राह्मण या राजपूत समुदाय भी दावेदारी जता सकते हैं। लेकिन मुसलिम उम्मीदवार के रहते यह सीट एक बार हार चुकी कांग्रेस वर्तमान सांप्रदायिक रंगत में किसी मुसलिम नेता को टिकट देकर जोखिम शायद ही ले। यह बात अलग है कि कांग्रेस को लगे कि यह सीट जीत नहीं सकते तो क्यों न किसी मुसलिम को टिकट देकर इस कोटे को पूरा कर लिया जाए। राजपूतों में जीतू रायसर, ब्राह्मणों में बाबू जयशंकर जोशी जैसे दावेदार अपनी अनुकूलता में तब ही करेंगे जब उनके खैरख्वाह प्रदेश स्तर पर प्रभावी होंगे अन्यथा दीखती हार में कांग्रेस से वही माथा मांडेगा जो झुझार होगा।
हां, एक बात और, सिद्धिकुमारी के इनकार के बाद हो सकता है देवीसिंह भाटी अपनी पदर-पंचाई इस सीट पर भी करें लेकिन ऐसा होगा तभी जब वे अपनी बाटी सिकने की निश्चिंतता में होंगे अन्यथा 2018 के विधानसभा चुनावों में बीकानेर जिले में डॉ. कल्ला के बाद किसी स्थापित नेता की साख दावं पर होगी तो वह देवीसिंह भाटी ही हैं। भाटी को लगा कि खुद की कोलायत सीट खुद के लिए या किसी अपने के लिए ही निकालना मुश्किल है तो वे दूसरे किसी विधानसभा क्षेत्र की माथा-फोड़ी में नहीं पड़ेंगे। (समाप्त)
दीपचन्द सांखला

7 सितम्बर, 2017

No comments: