Thursday, March 9, 2017

देवीसिंह भाटी अपने को बूढ़ा शेर क्या मानने भी लगे हैं

पढ़ा-सुना तो था ही, टीवी चैनलों के एनिमल प्लानेट सरीखे कार्यक्रमों में देख भी लिया कि जंगल का शासक कहलाने वाला शेर जब अपने को बूढ़ा मान लेता है तो उसे पलायन ही करना होता है। 2013 का विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद से ही देवीसिंह भाटी जब-तब 'उखडिय़ा' बयान देते रहे हैं। 1980 के साल से चुनावों में लगातार कोलायत क्षेत्र से जीतते रहे देवीसिंह के लिए 2013 की चुनावी हार अपच बन गई। पार्टियों को डांग पर रख सात चुनाव जीतने की खुमारी में देवीसिंह और उनसे लाभ उठाने वाले तथाकथित समर्थकों को यह भान ही नहीं था कि लोकतंत्र में अजेय कोई होता नहीं।
प्रदेश की सरकार में वर्षों प्रभावशाली प्रतिनिधित्व कर भी उनका चुनाव क्षेत्र कोलायत आज भी सर्वाधिक पिछड़े विधानसभा क्षेत्रों में शुमार किया जाता है। इस क्षेत्र को लोक की क्षेत्रीय शब्दावली में मगरा भी कहा जाता है और इसी बिना पर देवीसिंह के हाजरिये उन्हें मगरे का शेर भी कहने लगे। और बात जब जंगलराज के रूपक में हो तो 2013 की देवीसिंह की हार को इस तरह भी कह सकते हैं कि भंवरसिंह भाटी जैसे युवा शेर ने देवीसिंह जैसे बूढ़े शेर को इलाके से खदेड़ दिया।
गई 24 फरवरी को जोधपुर में राजनीति से देवीसिंह की संन्यास की घोषणा को जंगलराज रूपक में देखें तो लगता है इस तरह के बयान देने को देवीसिंह तभी मजबूर होते हैं जब वे अपने को बूढ़ा मान लेते हैंऐसा मानना भर ही जंगलराज में आयु पूरी कर रहे होते शेर को इलाका छोडऩे को मजबूर करता है। इस तरह की मंशाएं जाहिर करने और उससे पलटने के कई कारण हो सकते हैं। सबसे बड़ा कारण तो वे समर्थक ही हैं जो देवीसिंह की 'हाऊड़ाÓ छवि से केवल अपने स्वार्थ सिद्ध करते रहे है। ऐसों को लगता है कि देवीसिंह यदि राजनीति से संन्यास ले लेंगे तो उनका 'होकड़ा' (मुखौटा) दिखाकर अब तक जिस तरह वे अपने हित साधते रहे हैं, वे बन्द हो जाएंगे। ऐसा लगता है कि ऐसे ही हाजरिये किस्म के लोग संन्यास की मंशा जाहिर करते ही देवीसिंह की बिरुदावली गाकर पुन: उन्हें राजनीति में खदेड़ देते हैं और ये भ्रम करवा देते हैं कि शेर अभी बूढ़ा नहीं हुआ है।
बार-बार की ऐसी घोषणाओं और फिर उससे पलटने का दूसरा कारण उनकी नियति को भी मान सकते हैं। उनके परिवार में जिस तरह लगातार हादसे हुए और स्थितियां ऐसी बनी कि पुरुष प्रधान समाज के हिसाब से उनके वारिस एकमात्र पौत्र की उम्र लोकतांत्रिक व्यवस्था के हिसाब से 2018 के चुनाव तक 25 की नहीं होगी। इसलिए अगला विधानसभा चुनाव लडऩे की पात्रता ही वे हासिल नहीं कर सकेंगे। अन्यथा हो सकता था कि सामन्ती घराने से आए देवीसिंह को अपने पौत्र के लिए राजनीति में अपनी सक्रियता बनाए रखने का हेतु मिल जाता। ये परिस्थिति भी शायद देवीसिंह में जब-तब वैराग जगाती है।
तीसरे कारण की तह में कोलायत से वर्तमान विधायक भंवरसिंह भाटी हो सकते हैं। अपने क्षेत्र और विधानसभा दोनों स्थानों में जिनकी सक्रियता देवीसिंह का आत्मविश्वास डिगा देती होगी, हो सकता है देवीसिंह ऐसा सोचते हों कि इस जवान ने 2018 में यदि पटखनी फिर दे दी तो उम्र के इस मुकाम पर वे कहीं के नहीं रहेंगे। धीर और हंसमुख भंवरसिंह भले ही मगरे के शेर की अपनी छवि ना बना रहे हों पर वे अपने क्षेत्र के मतदाताओं में अपनेपन की छवि बनाने की जुगत में जरूर लगे हुए हैं। जबकि देवीसिंह भाटी यह अब तक भूले हुए ही हैं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में शेर की छवि से अपनेपन की छवि ज्यादा कारगर होती है।
लगे हाथ पिछले कुछ वर्षों से देवीसिंह भाटी के उस नये आयाम के संबंध में बात कर लेते हैं जिसमें वे देशी नुसखों के आधार पर इलाज करने और ऐसे नुस्खों से संबंधित पुस्तकें अपने नाम से छपवाकर विक्रय करवाने में लगे हैं। 24 फरवरी को देवीसिंह ऐसी अपनी पुस्तक के विमोचन के सिलसिले में जोधपुर गये थे और पत्रकारों के समक्ष राजनीति से संन्यास की घोषणा कर बैठे।
देवीसिंह भाटी शासन का हिस्सा रहे चुके हैं। अत: यह मानकर चला जा सकता है कि सामान्य नियम-कायदों की जानकारी उन्हें होगी ही। ऐसे में न्यूनतम आरएमपी जैसे सर्टिफिकेट के बिना उनके द्वारा इलाज करना और तत्संबंधी पुस्तकें छपवाकर विक्रय करना क्या स्वास्थ्य संबंधी नियम-कायदों का उल्लंघन नहीं हैï? क्या ऐसी प्रेक्टिस नीम-हकीमी में नहीं आती है। समर्थक कह सकते हैं कि ऐसा बहुत लोग करते हैं, और कुछ हेकड़-समर्थक यह कहने से भी शायद ही चूकें कि किस अधिकारी में दम है कि वह देवीसिंह पर हाथ बढ़ाए। लेकिन तब भी ऐसे सब-कुछ किये को गैर कानूनी के साथ-साथ क्या अनैतिक भी नहीं कहा जायेगा? कानून और नियम-कायदों को अपने प्रभावों से डांग पर भले ही कोई रख ले मगर अनैतिक कृत्य तो खुद के भीतर झांकने पर कचोटते ही होंगे! देवीसिंह भाटी को उनके समर्थक भले कहें शेर ही, वे अन्तत: हैं तो मनुष्य ही और मनुष्य कितना ही कठोर क्यों न हो, संवेदनाएं कहीं भीतर दुबकी होती ही हैं और वह कचोटे बिना नहीं रहती।
दीपचन्द सांखला

9 मार्च, 2017

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