Thursday, February 16, 2017

महापड़ाव का तलपट

श्रीडूंगरगढ़ में एक पखवाड़े से चल रहे किसानों के महापड़ाव का सकारात्मक पटाक्षेप बीते शुक्रवार 10 फरवरी, 2017 को तब हुआ जब हजारों किसान अपना यह धरना जिला मुख्यालय बीकानेर ले आए। संप्रग-दो की मनमोहनसिंह सरकार ने अपने अन्तिम दो वर्षों में जिस तरह डरूं-फरूं होकर धंधेबाज रामदेव के स्वांग और भले-भोले अन्ना हजारे के आंदोलन को संभालने की कोशिश की वैसी-सी स्थिति में सूबे की वर्तमान वसुंधरा सरकार आ ली दीखती है। इसलिए बीकानेर में धरने के पहले ही दिन न केवल जिले के प्रभारी मंत्री पहुंच गए बल्कि विद्युत निगमों के अधिकांश बड़े अधिकारी पांव सिर पर रखकर आ पहुंचे। किसानों की लगभग सभी मांगें विद्युत विभाग से ही संबंधित थीं। खैर, सरकारें डर कर ही सही ऐसे जनाक्रोशों की तवज्जो करती हैं तो लोकतंत्र के लिए यह सुखद ही है। सरकार ने किसानों से जिस तत्परता से समझौता किया, उम्मीद करते हैं वैसी ही उदारता से उसे लागू भी करेगी।
लेकिन इस आन्दोलन पर चर्चा करने का मकसद कुछ दूसरा है। श्रीडूंगरगढ़ जिले के गांव-गांव, ढाणी-ढाणी इस आन्दोलन की अलख जगाने वाले वामपंथी गिरधारी महिया हैं जो एक अरसे से अपने क्षेत्र में सक्रिय हैं। किसानों का इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा करने वाले महिया 2008 के विधानसभा चुनावों में श्रीडूंगरगढ़ से माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से उम्मीदवार थे। क्षेत्र की जनता ने तब उन्हें मात्र 6.28 प्रतिशत वोट ही दिए। 2008 में चुनाव आयोग को दिये महिया के सम्पत्ति शपथपत्र के अनुसार कुल जमा 15 लाख से कम संपत्ति वाले गिरधारी महिया 2013 में शायद अपना सामथ्र्य पुन: चुनाव लडऩे का नहीं जुटा पाए लेकिन क्षेत्र में उन्होंने सक्रियता बराबर बनाए रखी। उसी का नतीजा था कि इस महापड़ाव में इतने लोग साथ जुट गये कि सरकार को झुकना पड़ा।
व्यावहारिक राजनीति जिस तरह की हो गई है, उसके चलते 2018 के चुनाव में गिरधारी महिया जैसा राजनेता फिर इस उम्मीद से उम्मीदवारी करे कि क्षेत्र के किसानों ने इस महापड़ाव में जिस तरह का साथ दिया उसी तरह आगामी चुनावों में भी देंगे तो यह मुगालता ही होगा। यह ऐसा समय में जिसमे समाज के समर्थ और दबंग लोग शेष समाज को हांकने का जोर हड़पे बैठे हैं, जिनकी कोशिश यही रहती है कि किसे जिताने में उनके हित सधेंगे। ऐसे में उनका गणित या तो उस पार्टी के पक्ष में जाता है या उस उम्मीदवार के पक्ष में जिससे व्यक्तिगत लाभ ये अधिक से अधिक हासिल कर सकें। राजस्थान की सत्ता में साझेदारी भाजपा और कांग्रेस इन दो के पास ही रही है। कोई वामपंथी दो-एक जीत भी जाएं तो वे केवल अपनी बात रखने जितने ही रह जाते हैं, बात मनवाने जितने नहीं। आमजन के असल मुद्दों को उठाने वाले लगातार कमजोर होते जा रहे हैं जो देश के लिए सुखद नहीं है। ऐसों में वामपंथी भी गिने जाते रहे हैं लेकिन लगता है बाजारवाद के इस अंधड़ में ये भी अशक्त होते जा रहे हैं। राजस्थान के संदर्भ से बात करे तो अब उनकी सक्रियता वैसे प्रशिक्षण देने जैसी भी नहीं रही जब छात्रसंघ के चुनावों में वामपंथी संगठनों के समर्थित विद्यार्थी चुनाव जीत जाते और सक्रिय राजनीति करने के लिए ये छात्र नेता भाजपा या कांग्रेस में शामिल हो जाते थे। निज स्वार्थों के चलते जब से छात्र नेता सत्तान्मुखी दलों में जाने लगे तब से वामपंथियों की छात्र राजनीति की प्रासंगिकता भी समाप्त हो गयी, ऐसा होना ही लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं कहा जा सकता है।
इसी संदर्भ में किसानी की बात कर लेते हैं-इस आन्दोलन के अगुआ गिरधारी महिया और आन्दोलन को सफल होता देख सवार हुए अन्य अधिकांश नेता किसानों के उस जाट समुदाय से ही थे जिन्हें इस सूबे में सामान्यत: समर्थ माना जाता है। और अब तो यह भी देखा जाने लगा है कि इस समुदाय में से अधिकांश लोग खुद किसानी नहीं करके या तो बटाइदारों के माध्यम से खेती करते हैं या मजदूर रखकर। ऐसे में तय करना बेहद मुश्किल हो जाता है कि किसान असल में मानें किसे? कृषि प्रधान माने जाने वाले इस देश के लिए कहा यह भी जाता रहा है कि इसकी आत्मा गांवों में बसती है, ऐसे देश के लिए वर्तमान का परिदृश्य भयावह है। असल किसान आए दिन यहां आत्महत्या को मजबूर होता है। आंकड़े बताते है कि प्रतिदिन इस देश के 2000 किसान खेती करना छोड़ आजीविका के लिए दूसरे साधनों की जुगत में भटकने लगे हैं।
इसी बहाने अब क्षेत्र के तथाकथित किसान नेताओं की अवसरवादिता पर एक नजर डाल लेते हैं। श्रीडूंगरगढ़ के इस आन्दोलन को सफल होता देख क्षेत्र से एकाधिक बार विधायक रहे कांग्रेस के मंगलाराम अपने समर्थकों के साथ शामिल हो लिए। जब ऐसा हुआ तो नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी को भी लगा कि क्षेत्र के जाट समुदाय की ठकराई कहीं उनके हाथ से नहीं निकल जाए तो वे भी केवल मुंह दिखाई मात्र से श्रेय लेने पहुंच गए। इतना ही नहीं, अखबारों में बड़े विज्ञापन देकर और खबरों को जुड़वा-तुड़वा कर श्रेय हड़पने से भी ये नहीं चूके। सभी जानते हैं कि एक पार्टी से होते हुए भी क्षेत्र की जाट राजनीति में मंगलाराम और रामेश्वर डूडी में छत्तीस का आंकड़ा है। यह संयोग अकारण नहीं है कि क्षेत्र के अन्य बड़े नेता और ब्राह्मण समुदाय से आने वाले डॉ. बी. डी. कल्ला की तरह ही रामेश्वर डूडी भी राजनीति तो सूबे में शीर्ष की करना चाहते है लेकिन ये दोनों ही नेता असुरक्षा भाव जनित हेकड़ी से ग्रसित इतने रहते हैं कि अपने क्षेत्र के पार्टीजनों के साथ ही कभी सामंजस्य नहीं बना पाते। डूडी और कल्ला सपने तो प्रदेश में शीर्ष राजनीति का देखते हैं, जबकि देखा यह गया है कि इन दोनों के सरोकार ना कभी अपने क्षेत्र की समस्याओं से रहा और ना ही यहां की जरूरतों से। इसका खमियाजा सूबे की शीर्ष राजनीति में तो भुगतते ही हैं, अपने क्षेत्र में भी चुनाव जब तब इसी कारण हार जाते हैं, लेकिन फितरत कहें या हेकड़ी, जाती ही नहीं। कहा भी गया है कि 'ज्यांका पडय़ा स्वभाव जासी जीव स्यूं।'

16 फरवरी, 2017

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