Thursday, December 29, 2016

बदलते या बदले जा रहे राहुल गांधी की बात

उत्तरप्रदेश, गुजरात, पंजाब और राजस्थान की कुछ जनसभाओं के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लेकर यह जुमला चलने लगा कि देश बदल रहा है या नहीं पर राहुल जरूर बदल रहे हैं।
जनसभाओं में राहुल के दिए अब तक के अधिकांश भाषण ना केवल ठस और नीरस रहे बल्कि दो-पांच-दस मिनट में ही फुसकी निकाल वे 'बैक टू पैविलियन' होते रहे हैं। ऐसे में बारां की सभा में चौवालीस मिनट के भाषण की लम्बी पारी खेलना, भाषा के साथ गिलगिली करना, भाव भंगिमाओं को तैश में लाने भर को ही क्या राहुल का बदलना माना जा सकता है? बल्कि बारां सभा के उनके भाषण को देखने-सुनने पर लगता है कि वे खुद बदल नहीं रहे, उन्हें बदला जा रहा है, यू-ट्यूब पर उनके भाषण को देखने-सुनने पर बदलने और बदले जाने का अन्तर साफ समझा जा सकता है। यूं लगता है उन्हें इस सबका प्रशिक्षण दिया जा रहा है। राजनीति भी जब प्रोफेशन हो गई है तो प्रशिक्षण लेने-देने से गुरेज कैसा। लेकिन प्रशिक्षित यदि चाबी भरने से चलने वाले उस खिलौने की ही तरह मैकेनाइण्ड एक्ट भर करे तो समझते देर नहीं लगती कि प्रशिक्षक और प्रशिक्षित दोनों अनाड़ी हैं, दक्ष नहीं।
बावजूद इस सबके राहुल का थोड़ी-थोड़ी देर में उसी ठस अंदाज में माइक को संभालना उनकी आत्मविश्वासहीनता को दर्शाता है। भाषणों के बिन्दु लिखी पर्चियों को खुद ही अव्यवस्थित करके हाउ-जूजू होना, फेंके जाने वाले जुमलों को उनकी अहमीयत के अनुसार वजन ना देना, उनमें दक्षता की कमी को दर्शाता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता हैबारां जनसभा के लिए उनके प्रशिक्षक ने एक विशेष जुमला दिया होगा- 'पेटीएम' का मतलब 'पे-टू-मोदी'। इस जुमले को बिना खोले राहुल इतना लो-प्रोफाइल में बोले कि लगता है वे खुद ही इसे समझ नहीं पाए। छियालीस पार के राहुल पिछले लगभग पंद्रह वर्षों से व्यावहारिक राजनीति में सक्रिय हैं। इतनी लम्बी सक्रियता के बावजूद लगता है कि उन्होंने सीखने की अपनी उम्र में राजनीति और सार्वजनिक जीवन से औपचारिक वास्ता भी नहीं रखा। क्योंकि आधारभूत सीखने की उम्र मोटा-मोट तय है, लगता है सीखने की उस उम्र में राहुल का ना अखबारों से कोई खास वास्ता रहा ना स्थानीय लोक और भाषायी मुहावरों से। तभी बारां के अपने भाषण की शुरुआत वे बजाय तीन बातें बताने के, बात को दिखलाने से शुरू करते हैं। इसके उलट राहुल के पिता राजीव गांधी को याद करें तो वे जब राजनीति में आए तो इस क्षेत्र से बहुत कुछ वाकफियत नहीं रखते थे, सीखने की उम्र निकल चुकी थी लेकिन सब-कुछ को समझने की उनकी गति अच्छी थी, ऐसी समझ का अभाव भी राहुल में पूरी तरह दिखाई देता है।
बिना यह माने कि देश में भ्रष्टाचार पूर्ववर्ती कांग्रेस शासनों में ही विकराल होता गया, राहुल भ्रष्टाचार को मिटाने का आह्वान करने लगे हैंऐसा दावा कम हास्यास्पद नहीं हो जाता है। भ्रष्टाचार देश का ऐसा मुद्दा है जिस पर कांग्र्रेस यदि किसी अन्य पर एक अंगुली उठाती है तो चार अंगुलियां अपने आप उसकी ओर उठती हैं। यही वजह है कि उनके चौवालीस मिनट चले लम्बे भाषण में 17-18 मिनट बाद ही श्रोताओं में मुखर खुसुर-फुसुर शुरू हो जाती है जो अंत तक चलती है।
राहुल ही क्यों पूरी कांग्रेस वर्तमान सरकार को काउण्टर करने में पूरी तरह असफल है। कांग्रेस इसे क्यों भूल जाती है कि 2013-14 के विधानसभा-लोकसभा चुनाव मोदी-भाजपा ने कहने भर को भले ही जीते हों, असल में वे चुनाव अपनी साख खोकर कांग्रेस ने हारे थे। पिछले चुनावों में मोदी और भाजपाई-क्षत्रपों ने जिन वादों पर चुनाव लड़ाक्या उनमें से एक भी वादा इन ढाई-तीन वर्षों में वे पूरा कर पा रहे हैं? यदि उत्तर नहीं है तो कांग्रेस क्यों नहीं उन्हीं वादों के आधार पर सरकार को घेरती है। बारां में दिया राहुल का भाषण अधिकांश नोटबंदी पर था। राहुल अपने भाषण में यह समझाने में भी असफल रहे कि इस नोटबंदी से असल प्रभावित आमजन ही हुआ है, भले ही उन्होंने इसे 99 प्रतिशत जनता के खिलाफ बताया हो। उन्होंने यह तो बताया कि भारत के बैंकों में अक्टूबर माह में ही छह लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त जमा हुए हैं लेकिन वे इसे घोटाले के रूप में संप्रेषित नहीं कर पाये।
सही है कि नोटबंदी के इस गलत निर्णय की अनाड़ी क्रियान्विति ने विपक्ष को काउण्टर करने का बड़ा अवसर दिया है। लेकिन इस अवसर को केवल इसी आलाप में भुनाना फ्लॉप शो साबित होगा। आगामी छह-सात महीने में लेन-देन कुछ सामान्य होते ही जनता इसे भूलने लगेगी।
इन ढाई-तीन वर्षों में भ्रष्टाचार की दरें बढ़ी हैं, महंगाई लगातार बढ़ रही है बल्कि भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले संस्थानों को मोदी सरकार लगातार कमजोर और निष्क्रिय कर रही है। स्त्रियों पर अत्याचारों में कोई कमी नहीं आई और रोजगार के अवसर बजाय बढऩे के, घट रहे हैं। चीन और पाकिस्तान से होने वाली परेशानियां बढ़ी हैं, अन्तरराष्ट्रीय संबंधों और मामलों में खुद मोदीजी की भ्रमणीय फदड़ पंचाई के बावजूद देश की साख घट रही है आदि-आदि ऐसे कई मुद्दे हैं जिनके बूते मोदी और भाजपा भ्रमित कर शासन पर काबिज हुए हैं। और यह भी कि अपनी इन असफलताओं के जवाब में भाजपाई यह कह कर कांग्रेस को निरुत्तर कर देते हैं कि 60 वर्षों में यह कबाड़ा कांग्रेस ने कर छोड़ा है और कांग्रेस चुप हो लेती है। कांग्रेस को यदि प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभानी है तो उसे अपनी गलतियां स्वीकारते हुए यह बताना होगा कि हमारे किए की सजा हमसे सत्ता लेकर जनता ने दे दी। लेकिन जिन-जिन वादों से भ्रमित कर मोदी और भाजपा ने सत्ता हासिल की उनके लिए क्या वे कुछ करते भी दीख रहे हैं या नहीं, कांग्रेस ऐसे सवाल उठाने से क्यों कतराती है। और यह भी कि केंद्र और राज्य की भाजपा सरकारें अपने वादों पर खरी नहीं उतरती दिख रही तो उनकी असफलताओं को कांग्रेस जनता तक क्यों संप्रेषित नहीं कर पा रही।
हां, यह बात अलग है कि कांग्रेस भी इसी उम्मीद में हो कि जिस तरह खुद उनकी साख के चुक जाने और उसे मोदी-भाजपा के भुना लेने पर जनता ने शासन पलट दिया, उसी तरह इन भाजपा सरकारों के निकम्मेपन से उफत कर जनता पुन: उन्हें शासन सौंप देगी। लेकिन इस निकम्मे और अनाड़ीपने के शासन को भी विपक्ष को भुनाना होगा और उसके लिए भले ही मोदी जैसे शातिरपने की तरतीब ना अपनाए लेकिन  कांग्रेस और अन्य विपक्ष को चतुराई तो दिखानी होगी। ऐसी चतुराई की समझ भी इस वय में राहुल गांधी में आती नहीं दिखती। मोदी इतने शातिर तो हैं ही कि उनके निकम्मे और अनाड़ीपने को यदि विपक्ष नहीं भुना पाया तो वह अपना शासन अगले चुनावों में भी जाने नहीं देंगे, क्योंकि पैंतरेबाज मोदी हर बार नया पैंतरा लाने की कूवत तो रखते ही हैं।
और अंत में : बारां की ही तरह राजनीतिक पार्टियों की जनसभाओं की सफलता-असफलता आजकल आयोजकों पर निर्भर करती है। आयोजक जितने संसाधन झोंकते हैं, उतनी भीड़ तो इक_ा की जा सकती है लेकिन क्या ऐसे ही भीड़ का समर्थन भी हासिल किया जा सकता है? दूसरी बात है मीडिया से : कि भीड़ का अनुमान भी स्थान की लम्बाई-चौड़ाई से लगाया जाना चाहिए। सटकर खड़े होने पर भी व्यक्ति कम से कम तीन वर्ग फीट और बैठने पर चार वर्गफीट जगह घेरता है। अगर बारां की सभा में 70 हजार लोग शामिल हुए तो आयोजन स्थल क्या तीन लाख वर्गफीट का था, और अगर था भी तो वह पूरा भरा हुआ था? यह इसलिए कि मीडिया पर जनता का कुछ भरोसा अभी शेष है और उसे कायम रखना लोकतांत्रिक मूल्यों का तकाजा भी है।

29 दिसम्बर, 2016

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