इंजीनियरिंग कॉलेज बीकानेर इन दिनों फिर सुर्खियों में है। परसों ही प्राचार्य ने
कहा था कि गैर शैक्षणिक कर्मचारियों की कोई छंटनी नहीं होगी। चौबीस घंटे
गुजरते-न-गुजरते संविदा पर लगे डेढ़ सौ गैर शैक्षणिक कर्मचारियों को परसों वेतन और
कल हटने का पत्र थमा दिया गया। उन्हीं प्राचार्य ने कल कह दिया कि मंत्री महोदय का
सख्त आदेश था, मानना पड़ा। कहा
जा रहा है कि इस संस्थान के लिए गैर शैक्षणिक कर्मचारियों की कुल जरूरत दो सौ थी
और रख साढ़े चार सौ लिए। मतलब अधिशेष सौ कि छुट्टी भी लगभग तय ही है। नेताओं की
अदूरर्शिता के चलते लगतार विकराल होती जा रही बेरोजगारी के समय में इस तरह हटाने
की आई नौबत में ऐसे सभी कर्मचारियों के प्रति पूरी सहानुभूति है। सरकार का
स्ववित्त पोषी यह संस्थान छात्रों के अभिभावकों से फीस के रूप में भारी वसूली के बावजूद
इसीलिए भारी घाटे में चल रहा है। इस संस्थान की अकादमिक साख भी अब वह कहां रही जो
दस-बारह बरस पहले थी।
कभी प्रतिष्ठित रहा यह संस्थान स्थानीय प्रभावी नेताओं की दृष्टिहीनता के चलते
अब कार्मिकों को हटाने के ऐसे निर्णय से खलनायक भी लगने लगा है। 'विनायकÓ नेे इसके कारणों का खुलासा और भविष्य के संकेत 23 सितम्बर, 2014 के अपने सम्पादकीय में ही दे दिए थे। पाठकों के लिए सनदी
तौर पर उस सम्पादकीय के कुछ अंश साझा करना आज जरूरी लगा। प्रस्तुत है:
इंजीनियरिंग कॉलेज बीकानेर की साख दस साल पहले वाली लौटती नहीं लगती है,
लेकिन स्ववित्त पोषित इस सरकारी कॉलेज का माजना
इतना तो रहना ही चाहिए कि इसे विद्यार्थी मिलते रहें कि जितनों की फीस से इसे धकाए
रखा जा सके! अब करतूतें ऐसी ही हो रही है कि अगले पांच-दस सालों में करोड़ों के इस
भवन को खण्डहर में तबदील होने को छोड़ दिया जायेगा। स्ववित्त पोषित है तो सरकार
आर्थिक जिम्मेदारी मानती नहीं और ये नेता और जनप्रतिनिधि इस कॉलेज में अपने-अपने
आदमियों को घुसाने में इस तरह लगे हुए हैं कि दो सौ कार्मिकों का स्टाफ सरप्लस हो
गया। ऐसी विचित्र स्थितियां इस कॉलेज को देखनी पड़ रही है कि उसके अस्तित्व पर ही
बन आई। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही सरकारों
के समय से इसे शरणार्थी गृह के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। कार्मिकों की
जरूरत हो या न हो, इन नेताओं ने
जिसका भी कह दिया उसे शरण में लेना पड़ेगा। जो प्राचार्य असमर्थता जताता उसे बाहर
का रास्ता दिखा दिया जाता है।
जनता वोट देने के बाद अपनी जिम्मेदारी खत्म मान कर सब कुछ अपने जनप्रतिनिधियों
के जिम्मे मान लेती है। अगर इस तरह की स्थितियों में जनता सावचेत रहे तो नेता
दुस्साहस नहीं दिखा सकते। लेकिन आमजन की ट्रेनिंग ऐसी रही नहीं है। अत: अब जो,
जैसे और जितने भी इंजीनियरिंग कॉलेज से तनख्वाह
पाते हैं उन्हें एकजुट होकर इसे बचाने की कवायद में लगना होगा अन्यथा स्ववित्त
पोषित इस संस्थान का जो हश्र होना है सो होगा, उनकी आजीविका भी ताक पर चढ़े बिना नहीं रहेगी।
नेताओं और जनप्रतिनिधियों के अनावश्यक हस्तक्षेप ने इस अच्छे-भले कॉलेज का हाल
ऐसा कर दिया कि इंजीनियरिंग की ओर घटते रुझान के बाद तो इसे विद्यार्थी मिलने के
सांसे हो जायेंगे। पैसे देकर पढऩे वाला कोई ऐसे माहौल में आयेगा ही क्यूं? सरकार ने कभी किसी दबाव में कोई आर्थिक पैकेज
दे भी दिया तो उससे होना जाना क्या है। कॉलेज को खड़ा तो अपने पैरों पर ही रखना
होगा। इस प्रतिष्ठित कॉलेज से शहर की उम्मीदें इस तरह सांस उखड़ती दिखने लगेंगी,
नहीं सोचा था।
1 सितम्बर, 2016
2 comments:
आठ साल से ब्लॉग चला रहे हैं और हमको आज पता चला.... शानदार! जबरजस!! जिन्द्बाद!!!
नमस्कार दिगंबरजी
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