आगामी विधानसभा चुनावों के सन्दर्भ से बीकानेर पश्चिम विधानसभा क्षेत्र पर
जबानी लप्पा-लप्पी जितनी लम्बी चला ली उतनी लम्बी लप्पा-लप्पी बीकानेर पूर्व
विधानसभा क्षेत्र के लिए शायद संभव नहीं है। फिर भी जब इसी पर उतर आए हैं तो शहर
के इस दूसरे क्षेत्र की उपेक्षा क्यों की जाय। कुछ बीकानेर और कोलायत विधानसभा के
शहरी क्षेत्र को मिलाकर 2008 में बने इस
विधानसभा क्षेत्र से भाजपा की सिद्धिकुमारी लगातार दूसरी बार विधायक हैं। रियासती
काल के शासक परिवार की सिद्धिकुमारी को भी क्षेत्र से पांच बार सांसद रहे अपने
दादा डॉ. करणीसिह की ही तरह क्षेत्र के बाशिन्दों की 'खम्माघणी' मानसिकता का लाभ
मिलता रहा है। इसी के चलते यहां के कुछ लोग उन्हें 'बाइसा' बुलाते हैं। 2008 के चुनाव में कांग्रेस ने सिद्धिकुमारी के
मुकाबले अल्पसंख्यक समुदाय के नाम पर डॉ. तनवीर मालावत को उम्मीदवार बनाया जिसके चलते
सिद्धिकुमारी ने दोहरा लाभ उठाया। एक तरफ जहां उन्हें लोगों की खम्माघणी मानसिकता
का लाभ मिला वहीं भाजपा ने साम्प्रदायिक धु्रवीकरण के अपने पुराने पत्ते काम लिए।
इसके चलते पार्टी के उस विपरीत समय में भी सिद्धिकुमारी भारी मतों से जीत गई।
2008 से 2013 के अपने पहले
कार्यकाल में सिद्धि अधिकांश समय अपने क्षेत्र में नहीं रहीं। कभी-कभार आतीं भी थी
तो ज्यादा समय किलेनुमा अपने आवास में ही व्यतीत करतीं। ऐसे में अवाम का उनसे
संवाद तो दूर की बात, आम आदमी वहां तक
पहुंचने की मंशा भी नहीं बना पाता। सिद्धिकुमारी ने ना विधानसभा के सत्रों में
सक्रियता दिखाई और न ही अपने क्षेत्र को उन्होंने निहाल किया। ऐसे में आशंका थी कि
मतदाता 2013 के चुनावों में
सिद्धिकुमारी को शायद ही जिताएं। लेकिन केन्द्र में संप्रग-दो की सरकार की धड़ाम
हुई साख और नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर भ्रमाविृत प्रकटन ने सिद्धिकुमारी
के लिए अनुकूलताएं फिर बना दी और निष्क्रियता के बावजूद वे फिर से जीत गईं।
2013 के चुनावों में कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार को बदला और
क्षेत्र में बहुसंख्यक माली समाज से आने वाले भाजपा के दिग्गज रहे गोपाल गहलोत को
पार्टी में शामिल कर उम्मीदवार बनाया। अल्पसंख्यक कार्ड न चल पाने के बाद कांग्रेस
का यह निर्णय उचित तो था लेकिन कुछ तो गोपाल गहलोत की प्रचलित छवि, कुछ खम्माघणी मानसिकता और बहुत कुछ कांग्रेस
विरोधी राष्ट्रव्यापी हवा में सिद्धिकुमारी जीत गईं। लेकिन गोपाल गहलोत ने
कांग्रेस के पिछले उम्मीदवार तनवीर मालावात से जहां अपने वोट डबल किए वहीं हार-जीत
का अन्तर भी कम कर लिया।
अब आगामी 2018 के चुनावों हेतु
इस क्षेत्र के संभावित प्रतिस्पद्र्धिंयों की बात करें तो माना जा रहा है कि कोई
बड़ी जरूरत पेश नहीं आई तो मुकाबला फिर सिद्धिकुमारी व गोपाल गहलोत में ही होगा।
हालांकि सिद्धिकुमारी की निष्क्रियता अपने पिछले कार्यकाल से बढ़ी है वहीं मोदी का
भ्रमजाल भी लगातार सिमट रहा है। ऐसे में हो सकता है हार के भय से सिद्धिकुमारी
अपने दादा की तरह मुकाबले में ही ना आए। अन्य कईं कारणों से हो यह भी सकता है कि सिद्धिकुमारी
का मन इस मनोरंजक नामधारी खेल से भर से जाए और वह खुद ही अपने को बाहर कर लें। यदि
ऐसा होता है तो भाजपा राजपूत समुदाय के ही किसी नेता को मैदान में उतारेगी। ऐसा
इसलिए कह सकते हैं कि भाजपा को उच्च जातिवर्गीय अपने मोह का पोषण करते रहना है।
ऐसे में जिन नामों का उल्लेख संभावित उम्मीदवारों के रूप में कर सकते हैं उनमें
देहात भाजपा के युवा नेता सुरेन्द्रसिंह शेखावत और जब-तब इधर-उधर होने वाले अस्थिर
चित्त के विश्वजीतसिंह हरासर का उल्लेख किया जा सकता है। हालांकि वणिक समाज के
किसी नेता का नाम भी चलाया जा सकता है लेकिन ऐसे नामों का परिपक्वता तक पहुंचना कई
कारणों से संभव नहीं दीखता।
सुरेन्द्रसिंह शेखावत भाजपा में उन विरले नेताओं में हैं जो पढ़ते-लिखते हैं
और गरीब कमजोर की चिन्ता बिना किसी दिखावे के करते हैं। पार्टी में सार्वजनिक
कामों के लिए लगभग पूरा समय देने वाले शेखावत का प्रदेश और केन्द्रीय नेताओं के
साथ सीधा और आत्मीय संवाद है। ऐसी प्राथमिकताओं के आधार पर सिद्धिकुमारी के स्थान
पर पार्टी को उम्मीदवार देना होगा तो शेखावत के नाम पर विचार जरूर किया जाएगा।
वहीं दूसरा नाम विश्वजीतसिंह का है। देवीसिंह भाटी खेमे के होने के कारण भाजपा से
कभी जुड़ते हैं तो कभी अलग होकर पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के खिलाफ ही मोर्चा ले
लेते हैं। विश्वजीत के खाते में सार्वजनिक हित का उल्लेखनीय काम छावनी क्षेत्र के
आयुध भण्डार में लगी आग के समय अपनी जान पर खेलकर बारूद भरे ट्रकों को आग से दूर
भगा ले जाना जरूर है लेकिन सार्वजनिक हित की या पार्टी के लिए कोई अन्य उल्लेखनीय
सक्रियता उनकी नहीं देखी जाती।
2008 का चुनाव बीकानेर पूर्व से पार्टी प्रत्याशी सिद्धिकुमारी
के खिलाफ लड़ चुके विश्वजीत पिछले चुनाव में पार्टी में पुन: लौट आए। कहा और सुना
जाता है कि विश्वजीत ऐसा देवीसिंह भाटी के इशारों पर ही करते आए हैं और आगामी
चुनाव में सिद्धिकुमारी यदि रण छोड़ देती हैं और पार्टी में देवीसिंह के खोए जलवे
लौट आते हैं तो वे विश्वजीत के लिए जोर करवाएंगे।
यह भी इसलिए कि देवीसिंह के पौत्र अंशुमान की उम्र आगामी चुनावों तक
उम्मीदवारी हेतु जरूरी पचीस की नहीं होगी। अन्यथा हो सकता था भाटी अपने
उत्तराधिकारी को कोलायत जैसे बीहड़ की बजाय इस आसान शहरी क्षेत्र से उतारने की
कोशिश जरूर करते। कोलायत के वर्तमान विधायक भंवरसिंह भाटी विपक्ष में होते भी जिस
तरह सक्रिय हैं उससे देवीसिंह भाटी के लिए यह क्षेत्र अब उस तरह अजेय नहीं रहा
जैसा 1980 से लेकर 2008 तक था।
बीकानेर पूर्व से कांग्रेस उम्मीदवार का पेच इसमें उलझा है कि पार्टी प्रदेश
चुनावों की कमान सचिन पायलट के पास ही रहने देती है या चुनाव से पहले पुन: अशोक
गहलोत को सौंप देती है। जैसी परिस्थितियां हैं उसके चलते वर्तमान व्यवस्था में
बदलाव की कोई गुंजाइश नजर नहीं आती है। ऐसे में हो सकता है सचिन पायलट गोपाल गहलोत
को टिकट आसानी से नहीं दें। गोपाल गहलोत की भी बीकानेर के अन्य नेताओंं की तरह ही
सार्वजनिक जीवन में जमीनी सक्रियता नहीं हैं और छवि के जिस नकारात्मक प्रचार के
चलते पिछले चुनाव में प्रतिद्वन्द्वी सिद्धिकुमारी को वे बराबरी की टक्कर नहीं दे
सके, आज भी गोपाल गहलोत अपनी
उस छवि में कोई सकारात्मकता लाने में प्रयासरत नहीं देखे जाते। ऐसे में पार्टी
किसी अन्य उम्मीदवार पर यदि विचार करेगी तो वे शहर कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष
यशपाल गहलोत हो सकते हैं लेकिन चुनाव प्रबन्धन के मामले में वे गोपाल गहलोत से
पीछे ही रहते लगते हैं। यशपाल गहलोत में यदि प्रबन्धन की कोई अन्तनिर्हित क्षमता
है भी तो वह कल्ला बंधुओं की छाया में अब तक उजागर नहीं कर पाए हैं। ज्यादा चुनौती
भरे होने वाले अगले चुनाव में संख्या के आधार पर न्यून किसी जाति के नेता पर दावं ना
भाजपा लगाती दिखती है और ना ही कांग्रेस और ऐसे माहौल में किसी अल्पसंख्यक को फिर
से कांग्रेसी उम्मीदवारी शायद ही मिले। बीकानेर के दोनों क्षेत्रों में प्रभावी संख्या
होने के बावजूद किसी मुस्लिम को अपनी दावेदारी पुख्ता करनी है तो उसे पूरी तरह
जमीन की राजनीति में अपने को लम्बे समय तक हांकना होगा। ऐसी जीवट वाला कोई मुस्लिम
नेता इस क्षेत्र में फिलहाल नजर नहीं आता और ऐसी बड़ी कीमत के बिना किसी मुस्लिम
को उम्मीदवारी दे दी गई तो भाजपा के लिए मैदान आसान ही रहेगा।
समाप्त
11 अगस्त, 2016
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