Thursday, June 16, 2016

आनन्दपाल का अभयारण्य बीकानेर ही क्यों

बीकानेर पुलिस के कप्तान की वाह-वाही इसलिए जारी है कि यहां उनके क्षेत्र में होने वाली संगीन वारदातों का निबटारा करने में पुलिस महकमा लगातार सफल हो रहा है। लेकिन फिर यह क्यों नहीं बताया जाए कि इस क्षेत्र में इस तरह की संगीन वारदातों में लगातार बढ़ोतरी भी हो रही है।
कुछ महीनों की घटनाओं पर गौर करें तो पिछले कुछ वर्षों में कुख्यात हुए और 4 सितम्बर, 2015 से भगौड़े आनन्दपाल ने बीकानेर रेंज और उसमें भी विशेषत: बीकानेर जिले को अपना आश्रय स्थल बनाने की पोल कैसे देख ली। और ये भी कि यहां आनन्दपाल का आश्रय स्थल होना, लगातार संगीन वारदातें होना और पुलिस द्वारा ऐसी वारदातों को सीमित समय में निबटाना आदि-आदि में भी कोई आंतरिक सूत्र हैं क्या? बीकानेर क्षेत्र में आनन्दपाल को सुरक्षित आश्रय मिलने, इस तरह के आश्रयों से जुड़े लोगों की बेधड़की और इनकी कथाएं सुनने-सुनाने वालों से क्षेत्र के अन्य अपराधियों का दुस्साहस बढ़ता है। क्योंकि अपराधियों की कथाएं अपराधी मानसिकता वाले लोगों में उसे नायक के रूप में स्थापित करती हैं। इस तरह क्षेत्र में संगीन अपराधों की अनुकूलता भी बनती जाती है।
दूसरा पक्ष यह भी कि आनन्दपाल की फरारी में पुलिस अधिकारियों का लिप्त होना और इस लिप्तता में सूबे के एक कैबिनेट मंत्री के संरक्षण की चर्चाएं भी कम नहीं होती हैं। ऐसा माना जाने लगा है कि आनन्दपाल की फरारी और नौ माह बाद भी उसकी पकड़ाई ना होना ना केवल पुलिस महकमें में फांक होना जाहिर करती है बल्कि सूबे की सरकार के मंत्री भी आमने-सामने नजर आने लगते हैं।
इस पूरे दृश्य का नेपथ्य 23 अक्टूबर, 2006 को एनकाउंटर में मारे गए एक अन्य कुख्यात दारिया उर्फ दारासिंह से शुरू हुआ माना जाता है। कहते हैं दारासिंह के उत्तराधिकारियों का मानना है कि वह एनकाउंटर तब के प्रभावी और वर्तमान सरकार में भी हाल तक ताकतवर माने जाने वाले राजेन्द्र राठौड़ के इशारों पर फर्जी तौर पर अंजाम दिया गया। इस मामले में पिछली कांग्रेस सरकार के समय राठौड़ जेल की हवा भी खा चुके हैं।
बाकाडाकियों के कयास हैं कि दारिया के उत्तराधिकारियों के डर से राठौड़ ने अपनी निजी सुरक्षा आनन्दपाल को सौंप रखी है और वह इस काम पेटे वसूली विभिन्न तरीकों से करे बिना नहीं रहता होगा। अन्यथा कोई कारण नहीं कि किसी सूबे की सरकार का किसी एक अपराधी को पकडऩे का मन हो और वह सूबे में रहते हुए ही पकड़ा नहीं जाए।
जब वह प्रदेश में होता है तो लगातार जगह बदलते हुए विचरण करता रहता है और सूबे से बाहर कहीं पहुंचता है तो भनक लगने पर पुलिस के पहुंचने से पहले खुद अपराधी को सूचना हो लेती है और वह वहां से गायब हो लेता है। कल मध्यप्रदेश के ग्वालियर से आनन्दपाल यूं ही गायब नहीं हो लिया। पुलिस और सरकार में बैठे कुछ लोग जब तक किसी अपराधी के साथ नहीं हों तो वह लम्बी फरारी काट नहीं सकता।
बीकानेर पुलिस की हाल की मुस्तैदी में अब यह भी देखने की कोशिश होने लगी है कि इस मुस्तैदी की आड़ में आनन्दपाल को कहीं कवर तो नहीं दिया जा रहा है। हो सकता है ऐसा नहीं भी हो लेकिन जिस जिले की पुलिस एक ओर छिट-पुट और संगीन सभी अपराधियों पर मुस्तैदी दिखाती नजर आती हैफरारी के बाद कोई अपराधी उसी क्षेत्र में निर्भय घूम रहा हो और पुलिस को उसकी भनक भी न लगे!
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजनेता अपने तार सभी तरह के अपराधियों से जोड़े रखते हैं, फिर वह चाहे रंगदारी करने वाले अपराधी हों, भूमाफिया, बिल्डरमाफिया और खननमाफिया आदि-आदि ही क्यों ना हो। ऐसे सभी अपराधियों का जहां राजनेता बचाव करते हैं वहीं ये लोग राजनेताओं की वोटों और नोटों की भूख मिटाते हैं। आजादी बाद पुलिस का दुरुपयोग इसी तरह बढ़ता गया और आज देखते हैं कि यह गठजोड़ खतरनाक मुकाम हासिल कर चुका है।
इसीलिए पुलिस में ना केवल आन्तरिक रिफॉर्म की जरूरत महसूस की जाने लगी है बल्कि यह भी माना जाने लगा है कि जब तक पुलिस को इन राजनेताओं से मुक्त नहीं किया जाएगा तब तक किसी तरह का रिफॉर्म कारगर नहीं होगा। इसी के चलते पुलिस का यह महकमा सामूहिक कुंठा का शिकार होता दिखने लगा है जिसका खमियाजा आमजन को आए दिन उठाना होता है और ये भी कि 'अपराधियों में डर और आमजन में विश्वास' जैसा राजस्थान पुलिस का आदर्श स्लोगन उलटकर 'अपराधियों में विश्वास और आमजन में डर' जैसे जुमले में तबदील होने की गत को हासिल नजर आने लगता है।

16 जून, 2016

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