Tuesday, March 22, 2016

विधानसभा में घुसने की मासूमियत के बहाने लोकतंत्र की बात

सर्वहारा की तानाशाही की पैरवी करने वाले वामपंथियों का लोकतंत्र के लिए कहना-मानना यह है कि अपनी अनुकूलता के लिए बनाई यह पूंजीवादी व्यवस्था ही है। मान लेते हैं ऐसा है तो कौन-सी व्यवस्था निर्दोष है? एक आदर्श लोकतांत्रिक शासन प्रणाली ही ज्यादा मानवीय शासन व्यवस्था हो सकती है। व्यवहार में सर्वहारा की तानाशाही भी सोवियत संघ की अलग थी और चीन में अलग। भारत के संदर्भ ही से बात करें तो पश्चिम बंगाल पैकिंग का लोकतांत्रिक वामपंथ अलग तो केरल पैकिंग का लोकतांत्रिक वामपंथ अलग। खैर, आज का मुद्दा यह है भी नहीं लेकिन शुरुआत इस विचार से इसलिए की कि भारत में वर्तमान लोकतांत्रिक शासन प्रणालियां पूंजी द्वारा हड़काई जाकर पूंजीवाद को पोसने वाली होती जा रही हैं।
बीकानेर के संदर्भ से बात करें, नगर विकास न्यास के मनोनीत अध्यक्ष का जिले में सत्ता का मुख्य पद होता है। यहां के संदर्भ से बात करें तो सूबे की भाजपा सरकार ने पिछले लगभग ढाई वर्ष में इस पर किसी का मनोनयन नहीं किया है। मुख्यमंत्री ने अपने पिछले कार्यकाल में भी संघ और पार्टी कैडर को धता बता कर बीकानेर के इस पद पर धन्नासेठ को ही नियुक्ति दी। इस बार भी कहा जा रहा है कि इस मनोनयन की बोली पांच से शुरू होकर नौ करोड़ तक तो पहुंच गई और माना यह जा रहा है कि नौ करोड़ पर आंकड़ा इसलिए अटकाया है कि मौल-भाव के बाद बोली दस करोड़ पर छूट जाए। इस ही परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जमीनों को इधर-उधर कर वैधानिक हैसियत देने वाले महकमें की मुखियाई अब जितनी देरी से मिलेगी, उगाही या कहें वसूली का समय मनोनीत को उतना ही कम मिलेगा। मनोनयन की यह पद प्रतिष्ठा लागत से दस-बीस गुणा फायदे की मानी जाती है और मनोनीत व्यक्ति अलग बिल्डर या जमीनों का कारोबार करता है तो फिर फायदे का अन्दाजा लगाना ही समझ से परे है।
बोली की इस बाणी को सुनकर इस मनोनयन के लिए न संघ कैडर के लोग मुंह धोने की सोचते हैं और न ही तथाकथित निष्ठावान भाजपाई पोंछने की। बोलीदाता वह ही बनता है जो अपने गोरखधंधों को आड़ और टग देने के लिए राजनीति में आया हो। यहां कुछ ऐसे भी बोलीदाता बन गए हैं जिन्होंने हाल-फिलहाल बोली देने को ही पार्टी सदस्यता हड़पी है।
पिछले एक वर्ष से जिस वैश्य समुदाय से लोग इस पद की दौड़ में लगे थे उन्हें शायद समझ आ गई कि उन्हीं के समुदाय से जब शहर का महापौर है तो न्यास अध्यक्ष जैसा दूसरा महत्त्वपूर्ण पद आबादी के न्यूनतम हिस्से वाले इसी समुदायी को मिलना मुश्किल होगा। कहा जा रहा है कि उनकी इस ठिठक से एक अन्य छोटे समुदायी के जमीन-धंधी को गुंजाइश मिल गई और मुख्यमंत्री की पिछली बीकानेर यात्रा के दौरान वे स्थानीय राजनीति में ऐसे प्रकट हुए जैसे राजू श्रीवास्तव अपने लाफ्टर शो में नवजोत सिद्धू को अवतार के रूप में प्रकट करते थे। इन महाशय की समझ तब चौड़े आ गई जब अपनी जमात के प्रदेश अध्यक्ष को कामधेनु समझ पूंछ पकड़ी और विधानसभा के बजट सत्र में विधायक की सीट पर जा बैठे। महाशय की समझ के तो अपने स्वार्थ होंगे लेकिन वे सूबे की इस सबसे बड़ी पंचायत की सुरक्षा, चौकसी और तत्परता को धता बताकर आधे घंटे तक विधानसभा की कार्यवाही में बिना जीते शामिल रहे, ये कम चिंता की बात नहीं है। कहते हैं पार्टी अध्यक्ष के पट्टों में घुसने के प्रयासों का पूरा लाभ उन्हें मिला और बिना किसी कानूनी दर्जगी के उन्हें लौटा दिया गया।
नगर विकास न्यास हो या नगर निगम, इन्हें जिस तरह से चलना है उसी तरह चलने देने के लिए वहां के कारिंदे इन जीते हुओं के और राजनीतिक नियुक्ति के माध्यम से आए हुओं के मुंह में अंगुली फेर कर दांतों का मुआवना करने में माहिर हैं और उसी अनुरूप उनके निवाले का आकार-प्रकार तय कर देते हैं।
भाजपा में कई कार्यकर्ता चिल्लाते रहते हैं कि न्यास को भू-माफियाओं को ना सौंपें लेकिन राज चलाना, उसे बनाए रखना और फील्ड में चुनाव जीतना दो-दो अलग सिद्धियां हो चुकी हैं। इन्हें साधने में कांग्रेस और भाजपा दोनों के शीर्ष सिद्धहस्त हैं और ऐसों की रुदाली के बावजूद गंगाप्रसादी हो लेती है।
वामपंथियों की बात शुरू करने का राग इतना ही है कि इस सर्वाधिक मानवीय लोकतांत्रिक शासन प्रणाली को बचाए रखने के लिए धन की प्रतिष्ठा को समाप्त करना होगा और उत्पादन और शासन की गांव आधारित ऐसी प्रणाली पर विचारना होगा जो समाज के अन्तिम व्यक्ति पर केंद्रित विकेन्द्रिकृत हो। नहीं तो लूट की इस प्रणाली में हासिल बलशाली को ही होता रहेगा फिर वह चाहे धनबली हो या कोई बाहुबली।

23 मार्च, 2016

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