Thursday, January 28, 2016

गणतंत्र दिवस पर तमाशा, डॉ. कल्ला का फ्लॉप-शो और सूने तमाशबीन हम

पिछले लगभग एक माह से शहर में हलचल इसलिए थी कि गणतंत्र दिवस का इस बार का राज्य स्तरीय समारोह बीकानेर में रखा जाना है। सूबे की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस तरह के आयोजनों से किसी शहर-विशेष से अपने लगाव को जताने की कोशिश करती हैं लेकिन इस बार ऐसी छाप वह कहीं भी नहीं छोड़ पा रही। अपने पिछले कार्यकाल में वह जब ऐसा कुछ करतीं तो छाप भी छोड़ती थीं। उनके इस बदले रुख का असर उलटा होने लगा है। जहां आयोजन होता है वहां के लोग भारी उम्मीदें बांध लेते हैं और, जितनी भारी उम्मीदें होती हैं, निराशा की लम्बाई उतनी ही बढ़ जाती है।
बीकानेर शहर की सबसे बड़ी समस्या रेलफाटकों के चलते कोटगेट क्षेत्र की यातायात व्यवस्था है। इस आयोजन से पहले इसके लिए जिस तरह की कवायद चल रही थी, उससे यहां के बाशिन्दों को लगने लगा था कि मुख्यमंत्री इसके समाधान की कोई घोषणा जरूर करेंगी। हां, मंशा जरूर जताई, हो सकता है अगले माह आने वाले राज्य के बजट में इसके लिए प्रावधान किए जाएं।
दूसरा मुद्दा यहां के तकनीकी विश्वविद्यालय का है जिसे इस सरकार ने आते ही बन्द कर दिया। शहर के तमाम नेताओं नेजिनमें दोनों ही मुख्य पार्टियों के नेता शामिल हैंइसे अपनी नाक का सवाल बना लिया। बनाएं भी क्यों नहीं जब यहां के इंजीनियरिंग कॉलेज का शैक्षणिक-गैर शैक्षणिक और जरूरत-बिना जरूरत का अधिकांश स्टाफ इन्हीं नेताओं के अपने लोग हों। और इसी के चलते इस कॉलेज ने न केवल अपनी साख खोई बल्कि इसे चलाने के लिए फिजूल का धन हर महीने इतना चाहिए कि यह कॉलेज इसी बोझ के तले बैठ जाये। इन नेताओं को लगता है कि यह कॉलेज यदि तकनीकी विश्वविद्यालय का संगठक कॉलेज बनेगा तो धन आने के कई रास्ते खुल जाएंगे, नहीं तो वर्ष-दो वर्ष में इनके घुसाए लोग बेकार होकर इनकी छाती पर आ बैठेंगे। तकनीकी विश्वविद्यालय की मांग के साथ इसके अलावा कोई अन्य सवाल नाक का हो तो इन नेताओं को जाहिर करना चाहिए। अन्यथा जब पिछली विधानसभा के आखिरी सत्र के एजेन्डे में इस तकनीकी विश्वविद्यालय का विधेयक रखा जाना तय था और तब के नेता प्रतिपक्ष भाजपा के कटारिया को इसे रोकने से सदन में न गोपाल जोशी ने रोका और न ही सिद्धीकुमारी ने, फिर देवीसिंह भाटी और डॉ. विश्वनाथ को इससे मतलब ही क्या था। अब अनशन का शो करने वाले डॉ. बीडी कल्ला ने भी तब अपनी पार्टी की सरकार के चलते इस विधेयक को रखवाने और उसे पारित कराने का राई-रत्ती भी कोई प्रयास किया हो तो जरूर बताएं।
खैर! लोक में कैबत है कि गई बातों तक घोड़े भी नहीं पहुंच पाते तो इन बातों से भी क्या बटेगा। 1967 से पहले कांग्रेस यह कहती थी कि बीकानेर विकास में इसलिए पिछड़ा है कि यह हमेशा विपक्ष को जिता कर भेजता है। उसके बाद से अधिकांशत: यह शहर सरकार में शामिल रहा। लेकिन इसे कभी उससे ज्यादा कुछ हासिल हुआ क्या जो एक संभागीय मुख्यालय को उसकी बारी के अंत में हासिल होता रहा है। कहने को सब जनप्रतिनिधि अपनी उपलब्धियों की लम्बी फेहरिस्त गिनवाते हैं और मतदाताओं को बेवकूफ बनाते रहते हैं।
शहर की शेष छिट-पुट जरूरतें अपनी जरूरतों के ही दबाव में जैसे-तैसे भी कभी पूरी हो लेगी लेकिन फिलहाल जो सबसे बड़ी जरूरत कोटगेट क्षेत्र की यातायात व्यवस्था है और जिसके समाधान की यह शहर पिछले पचीस वर्षों से बाट जोह रहा है, उसका निकट भविष्य में कुछ होना-जाना है क्या?
यह तो हो ली वर्तमान शासन की बात। लगे हाथ बात इस शहर के अपने होने का दावा करने वाले डॉ. बीडी कल्ला की भी कर लेते हैं कि वे अपने इसी दावे को पुष्ट करने के लिए उक्त में से एक बड़ी और दूसरी नाक की मांग के साथ अन्य कई मांगों को लेकर 21 जनवरी से सत्याग्रह पर बैठे और इसी क्रम में सांकेतिक भूख हड़ताल के रास्ते होकर हबीड़े में कहें या अपरिपक्वता के चलते 23 जनवरी से अपना घोषित आमरण अनशन भी कर बैठे।
पता नहीं उनकी इन मांगों में सत्य का आग्रह कितना है क्योंकि ये मांगें पिछले दो वर्ष की तो हैं नहीं। पिछली सरकार डॉ. कल्ला की थी और यह भी कि कोटगेट यातायात समस्या शुरू होने के पहले से भी वे सत्ता में थे और बाद में भी कई बार रहे। दो बार हार लिए हैं तो बैराग उमड़ा और सत्याग्रह पर बैठ लिए। पहले तो उन्हें आमरण अनशन जैसा अपरिपक्व निर्णय करना ही नहीं था क्योंकि यह गांधीवादी अनुष्ठान सचमुच के आग्रह के बिना पूरा नहीं होता। दूसरा बैठ गए तो मुख्यमंत्री के बुलावे पर उन्हें खुद न जाकर पार्टी के उन वरिष्ठों को भेजना चाहिए था जो अनशन पर नहीं थे। खुद उनके 'भाईजी' जनार्दन कल्ला और भानीभाई को भेजा जा सकता था, और आमरण अनशन से उठकर मुख्यमंत्री से मिलने चल ही दिए तो फिर सत्य पर आग्रह कैसा। डॉ. कल्ला समझदारी दिखाते तो मुख्यमंत्री से टका-सा जवाब सुनकर नहीं लौटते। इसके बाद भी दो दिन और धैर्य रखते, पुलिस द्वारा जबरन उठाकर ले जाने का इंतजार करते तो कुछ तो मान बना रहता। यह क्या हुआ कि कोई छिट-पुट बहाना लेकर ज्यूस पी लिया। जिस तरह की छोटी राजनीति खुद डॉ. कल्ला जीवनभर करते रहे हैं ऐसे में उन्होंने यह कैसे मान लिया कि उनके विरोधी दल की घाघ मुख्यमंत्री इस सबका श्रेय उन्हें लेने देगी। भारत के प्रसिद्ध शायर अल्लामा इकबाल का यह शेर शायद डॉ. कल्ला जैसे लोगों के लिए ही है :
मुझे रोकेगा तू ए नाखुदा, क्या गर्क होने से
कि जिसे डूबना हो, डूब जाते है सफीनों में
रही हम बाशिन्दों की बात तो जब तक हम अपनी सून से निकलेंगे नहीं, तमाशाबीन बनकर भुगतना यूं ही होगा।

28 जनवरी, 2016

3 comments:

Unknown said...

बिल्कुल सही-'जब तक हम अपनी सून से निकलेंगे नहीं तमाशाबीन बनकर भुगतना यूं ही होगा।'

Unknown said...

बिल्कुल सही-'जब तक हम अपनी सून से निकलेंगे नहीं तमाशाबीन बनकर भुगतना यूं ही होगा।'

Unknown said...

बिल्कुल सही -सभी प्रदेशों की जनता के लिए 'जब तक हम अपनी सुन से निकलेंगे नहीं भुगतेंगे यूं ही तमाशबीन बनकर'