Thursday, November 19, 2015

बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल और उसके संविधान की गरिमा

बीकानेर के व्यापारियों और उद्योगपतियों की छह दशक से ज्यादा पुरानी और प्रतिनिधि संस्था बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल पिछले लगभग पांच वर्षों से संक्रमण काल से गुजर रही है। जिन प्रतिष्ठ शिवरतन अग्रवाल पर भरोसा और उम्मीदें कर अध्यक्ष बनाया, नहीं पता किन दबावों में या कौनसी नाड़ दबने के चलते वह लगभग कब्जाधारी होकर अपने मान को धूल-धूसरित होने दे रहे हैं। 'विनायक' में इस संस्था की कार्यप्रणाली को लेकर पहले भी कई बार लिखा जा चुका है। 2011 में जब अग्रवाल ने पहले तो अपने द्वारा मनोनीत कार्यकारिणी को ही इस्तीफा सौंपा और बाद इसके कार्यकारिणी द्वारा मंजूर न करने की बिना पर आज भी अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। जबकि विधान के अनुसार अध्यक्ष का कार्यकाल दो वर्ष का ही होता है।
लगभग देश की आजादी के साथ ही स्थापित बीकानेर व्यापार उद्योग मंडल के विधान में अपर हाउस की तर्ज पर संरक्षक परिषद का प्रावधान है। शिवरतन अग्रवाल का संस्थान के विधान में अगर विश्वास होता तो वे इस संरक्षक परिषद के मुखातिब होते न कि स्वयं द्वारा ही घोषित कार्यकारिणी के। अग्रवाल 27 जनवरी, 2009 को अध्यक्ष निर्वाचित हुए उस हिसाब से 26 जनवरी, 2011 से पहले मण्डल अध्यक्ष का चुनाव हो जाना चाहिए था, जो आज तक लंबित है।
इस संस्था से संबंधित ताजा सन्दर्भ यह है कि पिछले दिनों संस्था की संरक्षक परिषद की ओर से मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को इस्तगासे की दरख्वास्त लगाई गई, जिसे स्वीकार कर शिवरतन अग्रवाल और उनके साथियों के खिलाफ एफआइआर दर्ज कर आरोपों की जांच करने के आदेश दिए गए हैं।
मंडल अध्यक्ष अग्रवाल पर संरक्षक परिषद का एक आरोप बेहद गंभीर है और जो उनकी नीयत में खोट को भी साफ दरसाता है। मण्डल की अचल जायदाद को अग्रवाल द्वारा अपनी ही कम्पनी के नाम किराए पर लेने को किसी भी तरह से नैतिक नहीं ठहराया जा सकता। अग्रवाल जिस हैसियत को हासिल हो चुके हैं उसमें इस तरह का कृत्य तुच्छता की श्रेणी में ही माना जाएगा। जिन ऐसे अधूरे लोगों की सलाह पर वे यह कर रहे हैं, उनका वजूद हमेशा ही से परजीवी का सा रहा है। लगता है अग्रवाल को अपनी प्रतिष्ठा की परवाह बिलकुल नहीं है।
शिवरतन अग्रवाल चाहें तो बीकानेर व्यापार उद्योग मण्डल जैसी संस्था अपने बूते भी खड़ी कर सकते हैं। बावजूद इस सब के 2011 के बाद वे अनैतिक और अवैधानिक तरीके से पद पर क्यों जमे हुए हैं? अग्रवाल से तो उम्मीद यह की जाती है कि वे संस्था के संरक्षक की भूमिका में आएं और किसी की मंशा उचित नहीं लगे तो उसे बरजें ताकि यह संस्था सिरमौर प्रतिष्ठा के साथ अपने संवैधानिक उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सन्नद्ध हो। लेकिन हो इसके उलट रहा है, वे खुद तुच्छ तौर पर इस संस्था में उलझे हुए हैं, और जैसा कि संरक्षक परिषद का आरोप है, उलटे-सुलटे कृत्यों में पता नहीं किनकी दुष्प्रेरणा से संलिप्त हैं। दरअसल ऐसे लोगों को शिवरतन अग्रवाल का शुभचिन्तक तो नहीं कहा जा सकता। जरूरत इस बात की है कि जिनकी नीयत में खोट है, उनसे अपने को अलग कर मण्डल और संरक्षक परिषद को सुचारु करवाने में प्रवृत्त हों। अन्यथा संस्था का कबाड़ा तो इससे ज्यादा क्या होगा, खुद अग्रवाल अपने सहधर्मियों के अन्तर्मन में मैले होते जाएंगे। हो सकता है धनबल का लिहाज करके कोई मुंह पर नहीं बोलते हों लेकिन दबी जबान सहधर्मियों द्वारा शिवरतन अग्रवाल भुंडाये जाने लगे हैं।
इस प्रकरण में मीडिया भी एक्सपोज हुआ है। उसने पिछले दिनों शिवरतन अग्रवाल के खिलाफ न्यायालय के आए फैसले की खबर को तवज्जो संभवत: इसलिए नहीं दी कि अग्रवाल का उद्योग समूह उनका बड़ा विज्ञापनदाता है। एक अखबार ने उक्त खबर लगाई भी तो पल्ला-बचा कर। ऐसे में मीडिया क्या अपनी सीमाएं जाहिर नहीं करने लगा है। यानी जो विज्ञापन देता है उसके खिलाफ यह मीडिया अपने पाठकों और दर्शकों से कुछ भी साझा नहीं करेगा। मीडिया की मलिन होती छवि को इस तरह की करतूतें और भी मैला कर रही है, भरोसा तो धीरे-धीरे जा ही रहा है।

19 नवम्बर, 2015

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