Wednesday, December 26, 2018

"मेरी बेटी--मेरा गौरव" (24 फरवरी, 2012)

गर्भ में पलती लड़की के भ्रूण का पता करके उसे वहीं खत्म करने को क्या कहें, समझ से परे हैं। यह कुकर्म एक साथ कई मर्यादाओं को तोड़ता है। देश के सन्दर्भ में कानून को तोड़ता है, समाज के सन्दर्भ में एक असामाजिक कृत्य है, परिवार के सन्दर्भ में स्त्री की दोयम हैसियत की पुष्टि करता है और धर्म के सन्दर्भ में देखें तो यह घोर अधर्मी का काम माना गया है। बावजूद इस सबके यह कुकर्म धड़ल्ले से हो रहा है। इस कुकर्म की बहुतायत भी उच्च, उच्च मध्य, और मध्य वर्ग के तथाकथित पढ़े-लिखे कहे जाने वाले परिवारों में ज्यादा देखी, सुनी गई है। होता भी यह इसलिए कि माना जाने लगा है लड़कियां देश और समाज में अपनी और अपने परिवार की संपन्नता में बाधा बनेगी।
आज के अधिकांश छोटे-बड़े धर्मगुरु जिन दो घृणित मुद्दों पर अपनी मौन स्वीकृति दे चुके हैं उनमें पहला है कन्या भ्रूणहत्या और दूसरा है धन का भ्रष्टाचार। कभी विरोध करते भी हैं तो वह रस्म अदायगी ही ज्यादा लगती है। इनमें से अधिकांश इतने आत्मविश्वासहीन देखे गये कि लगता है वे ऐसी वर्जना बतायेंगे तो उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाएगी, क्योंकि इन्हीं उच्च, उच्च मध्य और मध्य वर्ग के सम्पन्नों पर ही उनका प्रतिष्ठा का सारा दारोमदार होता है। सत्तासीनों की स्थिति तो और भी चिन्ताजनक है, वे गर्भ जांच और गर्भपात में लगे डॉक्टरों को प्रतिष्ठा देने में ही लगे रहते हैं, क्योंकि ऐसे डॉक्टर धन के बड़े स्रोत जो हैं। इस तरह के कुकर्मों में लगे इन डॉक्टरों से तो अब लगभग दुर्लभ और निष्काम भाव से अपने काम को अंजाम देने वाले जल्लाद ज्यादा मानवीय और ज्यादा धार्मिक कहे जा सकते हैं।
समाज के प्रतिष्ठित तो यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि यह किये बिना गुजारा नहीं है। पारिवारिक मुखियाओं का तो क्या कहें उनमें से अधिकांश तो इसके दुष्प्रेरक का काम करते हैं या आंखें मूंद लेते हैं। दोयम दर्जे को अभिशप्त अधिकांश स्त्रियां इन तथाकथित पढ़े-लिखे अधिकांश परिवारों में आज भी किसी निर्णय को अपने विवेक क्षेत्र का मानती-सोचती भी नहीं हैं।
इन दिनों दैनिक भास्कर ने ‘मेरी बेटी-मेरा गौरव’ अभियान चला रखा है। इसमें शहर के कई मौजिजों के बयान आ रहे हैं। वे कृपया अंतर्मन में झांकें, अपने भीतर का अवलोकन करें कि इस मुद्दे पर आपके मौन को आपके परिवार और समाज में कन्या भ्रूणहत्या करने की स्वीकृति तो नहीं मान लिया गया था, आपको लगता है कि हां, सचमुच ऐसा हो गया था तो आपको अखबार में छपे अपने वक्तव्य पर ग्लानि होनी चाहिए क्योंकि तब इस बड़बोलेपन का कोई हक आपको नहीं है। यदि तब भी ग्लानि नहीं होती है तो इसे अपने को अमानवीय होने की प्रक्रिया में आ जाने का संकेत मान लें!
-- दीपचंद सांखला
24 फरवरी, 2012

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