Thursday, October 22, 2015

सूने बाशिन्दें, अकर्मण्य नेता, ढेर सारी समस्याएं और जरूरतें

कोटगेट और सांखला रेल फाटकों के आसपास यातायात जाम रहने की समस्या, सार्वजनिक संपत्तियों पर अंधा-धुंध कब्जे, अवैध निर्माण, शहर में व्याप्त गंदगी, चरमराई सिवरेज व्यवस्था, अव्यवस्थित यातायात, जोधपुर और जैसलमेर रोड के बीच का बकाया बाइपास, फूडपार्क की उडीक, सिलिकॉन वैली का दिवास्वप्न, छीन लिया गया तकनीकी विश्वविद्यालय, नामभर का गंगासिंह विश्वविद्यालय, पचीस वर्षों से अटका रवीन्द्र रंगमंच, हिचकोले खाता कृषि विश्वविद्यालय, बाट जोहता सिरेमिक्स-हब, आसमान में टकटकी लगाए हवाई सेवा, गंगाशहर रोड को मोहता सराय से जोड़ने वाले लिंक रोड का निर्माण, भुट्टों के चौराहे से लालगढ़ स्टेशन को जोड़ने वाली सड़क का दुरुस्तीकरण और चौखूंटी पुलिया के इर्द-गिर्द की सर्विस रोड का निर्माण आदि-आदि के अलावा ऐसे वे छिटपुट और बड़े काम जो पाठकों के हिसाब से होने चाहिएं, फेहरिस्त में जोड़ लें।

अर्जुन मेघवाल, शंकर पन्नू, डॉ. गोपाल जोशी, डॉ. बीडी कल्ला, भवानीशंकर शर्मा, रामेश्वर डूडी, सिद्धिकुमारी, जनार्दन कल्ला, मकसूद अहमद, गोपाल गहलोत, तनवीर मालावत, भंवरसिंह भाटी, देवीसिंह भाटी, मानिकचन्द सुराना, डॉ. विश्वनाथ, गोविन्द मेघवाल, किसनाराम नाई, मंगलाराम गोदारा, बिहारीलाल बिश्नोई, सुमित गोदारा, सुशीला सींवर, नारायण चौपड़ा, जावेद पड़िहार, नन्दकिशोर सोलंकी, यशपाल गहलोत, सत्यप्रकाश आचार्य, विजय आचार्य, लक्ष्मण कड़वासरा, राजकुमार किराड़ू, अविनाश जोशी। इन नामों के अलावा पाठक हर उस नाम को शामिल कर सकते हैं, जिनसे कुछ या अधिक उम्मीदें शहर और जिले के बाशिन्दे करते रहे हैं।

ऊपर उम्मीदों की फेहरिस्त तो नीचे उनकी जिनसे उम्मीद पूरी करवाने की उम्मीदें की जाती रहीं। उम्मीद पर दुनिया कायम है जैसी कैबत का मतलब बीकानेरियों के लिए अब भी कुछ है तो समझ से परे है। कई उम्मीदें तो आइठाण की हद हासिल कर चुकी हैं, तो कुछ ऐसी भी रही हैं कि जो समाधान की घोषणा के बाद लगभग चिढ़ाने की चौखट से लौटा ली गईं। 2008 में कोटगेट और सांखला रेल फाटकों पर एलिवेटिड रोड से समाधान की योजना, तकनीकी विश्वविद्यालय जैसे कई उदाहरण हैं तो रवीन्द्र रंगमंच, गंगाशहर रोड-मोहता सराय की लिंक रोड और हवाई सेवा जैसी उम्मीदों की हवा में झूलना ही नियति है।

बीकानेर के लोग-बाग यूं तो हाकेबाज जाने जाते हैं लेकिन अपनी सुविधाओं और हितों को लेकर इतने बेपरवाह हैं कि इसके चलते यहां के नेताओं और जनप्रतिनिधियों की तो मानों पौ-बारह ही है।

जो भी जीतता है वह मान लेता है कि उसे इस सूने शहर का असल प्रतिनिधित्व मिल गया है, कुछ न करें तो भी ठीक और रूटीन में कुछ हो जाए तो सवाया ठीक। इस तरह रूटीन में हो लिए कामों को अपने द्वारा करवाया गिनवाना यहां कितना आसान है, इसे यहां के जनप्रतिनिधि अच्छी तरह जानते-समझते हैं। अन्यथा कोटगेट क्षेत्र की यातायात समस्या का समाधान और रवीन्द्र रंगमंच जैसे काम पचीस-पचीस वर्षों तक दिवास्वप्न बने नहीं रहते।

ऊपर गिनवाए नेताओं में करने-करवाने के दावे करते अनेक मिल जाएंगे लेकिन सत्ता में दो-तीन नम्बर की हैसियत पाने के बावजूद सच में उन्होंने कुछ किया होता तो शहर का रंग कोटा, उदयपुर और जोधपुर की तरह कुछ अलग ही होता।

नाली-सड़क जैसी अपनी समस्याओं के लिए जनता आए दिन कलक्ट्री भले ही पहुंच जाए पर असल जरूरत संगठित होकर इन नेताओं को घेरने की है ताकि ऊपर की फेहरिस्त में गिनाए कामों की प्राथमिकता तय करवा कर एक-एक काम को उसके असल अंजाम तक पहुंचाया जा सके। शहर की जरूरतों और समस्याओं के उक्त उल्लेख के मानी केवल फेहरिस्त पेश करना नहीं और न ही नेताओं की गेलैक्सी दिखाना है। असल मकसद है शहर के अबोध बाशिन्दों को जगाना। ये नेता अब तक ठगने और अपनी साजने के अलावा कुछ नहीं कर रहे, न इन्हें इस शहर से प्यार है और ना ही आपकी खैरख्वाही की चाह। ये नेता यदि धार-विचार लेते तो इनमें से एक भी जरूरत ऐसी नहीं है जो अब तक पूरी नहीं हो सकती थी और न ही एक भी ऐसी समस्या है जिसका हल नामुमकिन हो। बाशिन्दों को सिवाय बहलाने के--नेता कुछ कर ही नहीं रहे हैं। यह कहने में भी संकोच नहीं है कि इन सब नेताओं के लिए अनुकूलताएं बनाएं रखना मीडिया का भी कोई खास मकसद हो सकता है।

जरूरत है अपनी जरूरतों और समस्याओं के समाधान के लिए खुद जनता के जागरूक होने की। नहीं होंगे तो उल्लू बनते रहेंगे और भुगतेंगे भी।

22 अक्टूबर, 2015